मन कस्तूरी रे
(1)
सामने खुली किताब के खुले पन्ने को पलटते हुए स्वस्ति अनायास ही रुक गई! उसने एक पल ठहरकर पढ़ना शुरू किया!
“प्रेम के अलावा प्रेम की कोई और इच्छा नहीं होती। पर अगर तुम प्रेम करो और तुमसे इच्छा किये बिना न रहा जाए तो यही इच्छा करो कि तुम पिघल जाओ प्रेम के रस में, और प्रेम के इस पवित्र झरने में बहने लगो।” – खलील ज़िब्रान
स्वस्ति ने इन पंक्तियों को पढ़ा पर उसका मन हुआ वह इसे बार-बार पढ़े। उसने फिर से पढ़ा और मन ही मन दोहराया। अपने हाथों में ली हुई वह किताब बंदकर उसने टेबल पर रखी और अपनी पीठ कुर्सी की बैक पर टिकाकर आँखें मूंद ली। कुछ देर वह यूँ ही बैठी रही। शांत, निश्चेष्ट और चुपचाप।
ये एक खामोश-सी ढलती हुई शाम थी। पेड़ों के पत्ते सरसरा रहे थे। हवा कुछ धीमे धीमे चल रही थी। शहर भी दिन भर की आवाजाही से थक गया था। रोशनियाँ दम साधे अब अपनी जगमगाहट बिखेरने को बेकरार हो चली थीं। इसमें बस कुछ ही देर बाकी थी क्योंकि यह दिन और रात की दहलीज़ पर खड़ा वक़्त था। इधर सूरज डूबने का मन बना चुका था। दिवस की प्रेयसी ने उसे मनाने की बहुत कोशिश की पर वह चल चुका था अपनी यात्रा पर। उसका तन थका था और आँखे थकान से बोझिल हो रही थीं। उसे जाना था दूर बहुत दूर। उसके घेरते बादलों से उसका मन बदल चुका था । सूरज बादलों से दूर जाते हुए अब कल अगले दिन लौटने नहीं उस शाम से बिछड़ने के ख्याल में खोया था।
उस शाम, जब सड़क के दूसरी ओर हरसिंगार के फूलों ने ठीक नीचे की जमीन को एक सफेद-नारंगी चादर की तरह ढक दिया था, दूर कहीं अपने बसेरों की ओर लौटते पंछियों की चहचहाहट वृक्षों के झुरमुट गुलज़ार थे! शायद उनके पास अपने संगी-साथियों से बाँटने के लिए बेशुमार किस्से थे पर इधर कितनी अकेली, उदास और तन्हा थी स्वस्ति। उसका किस्सा सुनने के लिए उसके नजदीक कोई भी तो नहीं था! उसका सूरज भी तो उससे दूर कहीं और था उस समय और वह उसी के प्रेम में खोयी उसे मिस कर रही थी। प्रेम में ऐसे लम्हे बार बार आते हैं पर प्रिय से दूरी अनायास ही मन पर उदासी के आवरण को ढक देती है। मन अनायास ही उदास और अकेला होने लगता है। यह अकेलापन दरअसल अपने स्वत्व के भीतर की ओर की एक अंतर्यात्रा ही तो है जब मन भीड़ में भी अकेला हो जाता है! फिर कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। बस स्वस्ति के साथ भी कुछ ऐसा ही था।
“प्रेम.....” उसने अपने होठों को बुदबुदाते हुए सुना। एक लंबी साँस लेने के क्रम में उसके सीने के उठने गिरने के साथ उसके मन में विचारों की एक श्रृंखला बनने लगी। सामने शाम ढल रही थी। डूबते सूरज ने अपने पीछे गेरुए रंग को जो चादर छोड़ दी थी वह कुछ धुंधलाने लगी थी। कोई और दिन होता तो आसमान पूरा गेरुआ हो जाता पर आज आसमान का एक हिस्सा बादलों से भरा था जो उसके मन में उमड़ते विचारों की तरह तरह तरह की आकृति बना रहे थे। कोई और वक्त होता तो स्वस्ति अपना प्रिय खेल खेलने लगती। कितना पसंद था उसे, आसमान में छाए बादलों में मनचाही आकृति ढूंढने का अपना प्रिय खेल। कितना मज़ा आता था न स्वस्ति को इस खेल में।
बचपन से ही बालकनी से दिखते कुछ धवल, कुछ नील आकाश को निहारते हुए वह यह खेल खेलती थी। उसे अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाने में कोई बहुत ज्यादा कोशिश नहीं करनी होती थी। बस एक बार मनभर निहारती स्वस्ति तो इन आवारा उमड़ते बादलों में उसे कई आकृतियाँ नज़र आने लगती। कभी आसमान छूने को बेताब कोई पंछी दिखाई पड़ता तो कभी एक दूसरे के प्रेम डूबा हंसों का कोई जोड़ा सूझने लगता। कभी घोड़े पर सवार उड़ा जा रहा कोई युवा घुड़सवार नजर आता तो कभी नदी के सीने में अटखेलियाँ करती कोई खिलंदड मछली दिखने लगती। और कभी-कभी तो प्रेमिल चुंबन में खोये दो जवान चेहरे भी नजर आते, दीन दुनिया से बेखबर बस एक दूसरे में खोये दो प्रेमी। पर आज कोई और शक्ल नहीं, सिर्फ शाम के रंग में हलके-हलके गहराते बादल।
गडमड होते विचार जब श्रृंखलाबद्ध होने लगे तो स्वस्ति ने पाया स्मृतिपटल पर एक आकृति बनने लगी थी। इस आकृति को पहचानने के लिए स्वस्ति को बहुत ध्यान लगाने की जरूरत नहीं थी। वह उसे जानती थी। हाँ, ये वही था... वही तो था। उसका ही तो चेहरा था जो जाने कब से उसके मन पर अपना आधिपत्य जमाये उसके दिलो-दिमाग पर हुकूमत कर रहा था।
“प्रेम.... और इच्छाएं....”
स्वस्ति ने इन शब्दों को दोहराया। क्या ये दोनों अलग शब्द हैं। प्रेम में इच्छा की अनुपस्थिति असंभव है और अनुचित भी। ये कैसे संभव है कि इच्छा उत्पन्न न हो और क्यों न करे वह इच्छा। फिर इच्छाएं किसी बंधन की कैद कब मानती हैं। वे तो सिंदूरी आकाश में बेख़ौफ़, बेबाक विचरने वाला पंछी हैं। क्या उनके लिए कोई दिशा निर्धारित कर सकता है? क्या उनके लिए कोई सीमा तय की जा सकती है। क्या इच्छाओं को किसी कैद में बंद रखा जा सकता है। नहीं, ऐसा कुछ भी तो सम्भव नहीं।
स्वस्ति ने धीरे से अपनी आँखें खोल ली पर उस चेहरे के आकर्षण से छूटना उसके लिए संभव नहीं था जो उसके मन पर छाया था। उसकी इच्छाओं का केंद्र उसके मनोमस्तिष्क पर हावी हो रहा था और वह और उसकी समूची देह मानो प्रेम की आंच में पिघल रही थी। इस पिघलन में वह अकेली नहीं रहना चाहती थी। वह तो शेखर का हाथ पकड़कर प्रेम के पवित्र झरने में बहना चाहती थी। उनके चौड़े सीने से लगे, उनकी बाँहों के घेरे में, प्रेम के इस झरने में बहना.... लगातार बहना...सीमाओं और मंजिल की ख्याल से बहुत दूर बस बहना दूर तक बहना और बस बहते ही जाना। शेखर के ख्यालों से निकल पाना स्वस्ति के वश में नहीं था। वह खुद भी कहाँ निकलना चाहती थी।
उसकी उम्र ही कुछ ऐसी थी। उसे पच्चीस वर्ष की एक खूबसूरत, नेक और जहीन लड़की कहा जा सकता है जो जवानी की दहलीज़ पर खड़ी अपने प्रेमी के ख्यालों में खोई है। यह बात बहुत सामान्य है पर केवल यही तो स्वस्ति का परिचय नहीं हो सकता। उसकी गम्भीरता, उसकी बुद्धिमत्ता और उसकी परिपक्वता आसानी से उसे आम लड़कियों से अलग खड़ा कर देने वाले कारक हैं। निश्चित तौर पर कोई आम लड़की तो नहीं ही है स्वस्ति। कुछ तो है जो उसे अलग बनाता है। भीड़ में खो जाने लायक व्यक्तित्व नहीं है स्वस्ति का। वह पच्चीस वर्ष की एक खूबसूरत, जहीन लड़की है पर क्या है वह जो उसे अपनी हमउम्र लडकियों से अलग बनाता है, भीड़ से अलग खड़ा करता है!
शायद उसकी विचारशीलता.... उसके शांत गंभीर चेहरे पर उसकी विचारशीलता परिलक्षित होती है! आत्मविश्वास से भरे उसके चेहरे की अभिजात्य चमक सहसा ही दूसरों को अपनी ओर खींचती है। लम्बा कद, छरहरी देहयष्टि, कमर से नीचे झूलते लंबे बाल और गेहुएं चेहरे का लावण्य.... कुछ भी तो साधारण नहीं था स्वस्ति के व्यक्तित्व में और सोने पर सुहागा उसकी विलक्षण बुद्धिमता है। सौन्दर्य और बुद्धिमता के इस मेल का परिणाम है उसका अनोखा व्यक्तित्व। और उसके व्यक्तित्व के इसी चुम्बक के असर से अक्सर खिंचा चला आता है कार्तिक। उसका साथी, उसका दोस्त, सखा और यदि कार्तिक के शब्दों में कहा जाये तो जन्म जन्मान्तर से उस पर जान लुटा देने को आतुर उसका एकतरफा प्रेमी।
उसका हमउम्र है कार्तिक। शायद कुछ महीनों का फर्क है दोनों की आयु में पर व्यवहार और व्यक्तित्व दोनों में जमीन आसमान का फर्क है! स्वस्ति की गम्भीरता और कार्तिक का खिलंदडपना दोनों एक दूसरे के ठीक विपरीत होते हुए भी जैसे एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं! ये बचपन की दोस्ती है, बालपन का साथ है जो उन्हें एक अदृश्य डोर में बांधे हुए है! इस दोस्ती के बिना अधूरा है स्वस्ति का जीवन! अपनी उम्र के युवाओं की तरह कार्तिक भी स्मार्ट, हैण्डसम, आधुनिक और उपटूडेट है उतना ही जितना कि आज के युग का कोई युवा हो सकता है! एकदम खींच लेने वाला और अजनबियों को भी अपना बना लेने वाला उसका सहज, सरल व्यक्तित्व उसकी सबसे बड़ी खूबी था! उसकी चुस्ती, फुर्ती, अलर्टनेस, उसका सेंस ऑफ़ ह्यूमर और उसका खुशमिजाज स्वभाव सब मिलकर जो शानदार कोकटेल बनता है बस वही है कार्तिक! किसी भी युवा लड़की की पहली पसंद होने के सारे तत्वों से लैस एक युवक! पर जो अपने मन के कोरे कागज़ पर होश सम्भालने की कच्ची उम्र से ही केवल और केवल एक ही नाम लिखकर बैठा था – स्वस्ति!
बचपन में उसके जीवन में स्वस्ति की मौजूदगी कुछ इस तरह से रही है कि वह भी उसके जीवन का जरुरी हिस्सा बन चुकी है! होश सँभालने की उम्र में ही उसने स्वस्ति को अपने सबसे नजदीक पाया है! इतने नजदीक कि उसके भविष्य की कल्पना में घुलमिल गया है स्वस्ति का चेहरा! कुछ इस तरह कि अब दोनों को अलगा पाना संभव ही नहीं! स्वस्ति के बिना जीवन की कल्पना व्यर्थ है कार्तिक के लिए! स्वस्ति उसके लिए साथी, दोस्त, मनमीत है, प्रेम की कल्पना भी उसके लिए स्वस्ति ही है!
ये और बात है कि वह जान गया है कि वह लाख चाहकर भी स्वस्ति के प्रेम का चेहरा नहीं बन पाया है पर वह स्वस्ति के जीवन अपनी दोस्ती की उपस्थिति और अपने एकतरफा प्रेम को लेकर भी कम आशावान नहीं! स्वस्ति के जीवन में शेखर की उपस्थिति ने उसकी कामनाओं के फूल को कुछ समय मुरझाने की हद तक प्रभावित जरूर किया था! एक वक़्त तो उसे लगा जैसे उसकी दुनिया यहीं इसी क्षण पर खत्म हो चली, कि जैसे जीवन में अब कुछ भी बाकी नहीं रहा पर वह फेज़ भी गुजर गया!
उसने शेखर के बारे में जानकर स्वस्ति से दूर जाने की नाकाम कोशिश की पर वह इसमें कभी सफल नहीं हो पाया!शायद ये उसके प्रेम की तीव्रता थी या फिर ये उसका सकारात्मकता से भरा स्वभाव ही है जो उसे इस दौर से भी बचा ले गया! वह संभाल पाया खुद को शायद इसलिए कि समझा पाया खुद को कि उसकी दोस्ती भी स्वस्ति के जीवन में कम महत्वपूर्ण नहीं! इस सोच के लिए वह अकेला ही उत्तरदायी नहीं, इसमें उसकी माँ का भी बड़ा हाथ है जो उसे कभी भी निराशा या अवसाद के समीप नहीं जाने देतीं! उसके मन के अंधेरे कोनों से उसे बचाकर उसके मन में हमेशा उम्मीद की एक लौ जगाये रहती हैं उसकी माँ सुनंदा!
पता नहीं क्यों उसके मन के किसी कोने में आज भी एक आशा बाकी है! आज भी उसे लगता है कि उसने स्वस्ति को खोया नहीं है! इसी उम्मीद ने बचाया है उनके रिश्ते को और वह इस उम्मीद को खोने को कतई नहीं! यही कारण है कि कार्तिक हमेशा इस उम्मीद का एक सिरा थामे रहता है कि एक दिन स्वस्ति उसके पास जरूर लौटेगी और वह उस दिन खुली बाहें लिए उसके स्वागत को प्रस्तुत रहना चाहता है! और अगर वह नहीं भी लौटती है तो वह उसे जीवन खुश खुश आगे बढ़ते हुए देखने के लिए खुद को तैयार कर रहा है!
इधर ऐसी भी अनजान नहीं है स्वस्ति! वह भी बखूबी जानती है प्रेम और दोस्ती के रिश्ते के बीच का फर्क! वह जानती है कि बहुत से मौकों पर प्रेम आप को विवश कर सकता है पर दोस्ती के साथ ऐसा नहीं होता! दोस्ती आप को मजबूत बनाती है। प्रेम आंसुओं का कारण बन सकता है पर दोस्ती वह शय है जो बारिश में भी आपके आँसू पहचान सकती है। वह जानती है अपने जीवन में कार्तिक की दोस्ती की महत्ता! यही वजह है उसने दिल के हाथों मजबूर होकर प्रेम में शेखर को जरूर चुना पर कार्तिक की दोस्ती से महरूम हो जाए ऐसा मौका कभी नहीं आने दिया!
कार्तिक के लिए यह स्थिति ठीक विपरीत है! प्रेम और दोस्ती को लेकर उसकी सोच अलग है! उसका मानना है कि अगर प्रेम में मित्रता हो जाये तो अच्छी बात है पर यदि मित्रता में प्रेम हो जाये तो जिंदगी में फिर किसी और प्रेम की जरूरत ही नहीं पड़ती है। उसकी मित्रता ही उसका प्रेम है तो उसे कभी किसी और प्रेम की जरूरत ही महसूस नहीं हुई!
अपने मन को समझाते हुए वह अक्सर खुद से ही कहा करता है, यूँ भी प्रेम ऐसा दोतरफा रिश्ता है जहाँ उम्मीदों और अपेक्षाओं की बहुत बड़ी जगह है जबकि दोस्ती ही एक ऐसा रिश्ता है जहाँ उम्मीद के बिना भी काम चलाया जा सकता है, जहाँ अपेक्षाओं से परे भी सम्बन्ध स्थायी रहने की आशा होती है, वह स्वस्ति के साथ ऐसे ही एक अनपेक्षित रिश्ते में बंधा हुआ है जहाँ लेने से कहीं ज्यादा देने का महत्व है! उसने बचपन से स्वस्ति के हर दुःख, हर कमी और हर अकेलेपन को बांटा है, उसकी परेशानियों में वह हमेशा ढाल बनकर उसके साथ आ खड़ा हुआ है तो आज केवल इस कारण वह उससे दूर नहीं हो सकता कि वह उसका प्रेम नहीं बन पाया! दोस्ती की अपनी महत्ता है और अपने दायित्व भी!
ढेरों अनकही उम्मीदों की वजह से प्रेम अक्सर दोस्ती की तुलना में कहीं ज़्यादा उलझाव भरा हो जाता है। कम से कम उसका और स्वस्ति का रिश्ता ऐसी उलझनों से परे है उसके लिए यह स्थिति भी कम सन्तोषजनक नहीं, रही उसके जीवन में प्रेम की बात तो वह कहीं न कहीं ये मानता है कि वे दोनों कैसा भी रिश्ता जियें नियति ने उन्हें एक दूसरे के लिए गढ़ा है और कभी न कभी कहीं न कहीं किसी मुकाम पर यह जरूर साबित होगा! वह बड़े धैर्य से अपने उसी कल की प्रतीक्षा में अपने आज को खुशनुमा बनाए हुआ अपने गम को पीने का सामर्थ्य रखता है! बस कुछ ऐसा ही है कार्तिक!
क्रमशः